AMIT LEKH

Post: रमेशचन्द्र झा : 50 और 60 के दशक में देश भर में फैली ख्याति

रमेशचन्द्र झा : 50 और 60 के दशक में देश भर में फैली ख्याति

50 और 60 के दशक में उनकी ख्याति देश भर में फैली, उन्होंने कई बार ‘अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों’ में बिहार का प्रतिनिधित्व भी किया

✍️ दिवाकर पाण्डेय/श्यामबाबू सिंह
– अमिट लेख

मोतिहारी, (विशेष)। रामवृक्ष बेनीपुरी ने उनके बारे में लिखा है- ‘दिनकर के साथ बिहार में कवियों की जो नयी पौध जगी, उसका अजीब हस्र हुआ, “आखें खोजती हैं इसके बाद आने वाली पौध कहाँ है”? कभी कभी कुछ नए अंकुर ज़मीन की मोती पर्त को छेद कर झांकते हुए से दिखाई पड़ते है। रमेश भी एक अंकुर है और वह मेरे घर का है, अपना है। पक्षपात ही सही बेधड़क कहूंगा कि रमेश की चीज मुझे बहुत पसंद आती रही है। अकिंचन दिया साधना का अकेला/जनम से जला है मरण तक जलेगा। अमरदीप जीवन सजग प्राण बाती/बहुत ही कठिन साध की लौ बुझाना। विरह का दिया है मिलन तक चलेगा/अकिंचन दिया साधना का अकेला। प्रयाग से लिखे अपने एक पत्र में हरिवंश राय बच्चन लिखते हैं- ‘रमेशचंद्र झा के गीतों से मेरा परिचय ‘हुंकार’ नामी एक साप्ताहिक से हुआ। उनके गीतों में हृदय बोलता है और कला गाती है। मेरी मनोकामना है कि उनके मासन से निकले हुए गीत अनेकानेक कंठों में उनकी अपनी सी प्रतिध्वनि बन कर गूंजे। रमेशचन्द्र झा की कविताओं, कहानियों और ग़ज़लों में जहाँ एक तरफ़ देशभक्ति और राष्ट्रीयता का स्वर है, वहीं दुसरी तरफ़ मानव मूल्यों और जीवन के संघर्षों की भी अभिव्यक्ति है। आम लोगों के जीवन का संघर्ष, उनके सपने और उनकी उम्मीदें रमेशचन्द्र झा कविताओं का मुख्य स्वर है। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखते हुए लगभग 70 से भी ज़्यादा पुस्तकों की रचना की, जिनमें मजार का दिया, कलिंग का लहू, स्वागतिका, आसावरी, प्रियंवदा, यह देश है वीर जवानों का, चलो दिल्ली, मेघ-गीत आदि मुख्य है। बावजूद इसके, साहित्य की मुख्यधारा में उन्हें नहीं जोड़े जाने को लेकर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अरविंद मोहन कहते है। ‘साहित्य में जो खेमाबंदी हुई है, खासतौर पर साठ के दशक के बाद उसके शिकार मुझे लगता है रमेश जी भी थे. एक बड़ी वजह उनके साहित्य के विलुप्त होने की ये भी है। आलोचना में, साहित्य में जो धाराएँ प्रबल हुईं, या जो लॉबी और विचारधारा मज़बूत हुई उससे वे पूरी तरह अछूते रहे। उनके समय के ही जो उनके दूसरे साथी कवि रहे, त्रिलोचन और नागार्जुन, जिन्होंने एक साथ लिखना शुरू किया, एक जैसी लिखाई शुरू हुई, तो ये ज़रूर है कि जो धारा प्रबल हुई उनके साथ रमेश जी का वैसा रिश्ता नही रहा। बांटों मेरी खुशियां मुझको सदमा दे दो / इस जीवन को एक कंठ नया नग्मा दे दो / यह जीवन क्या है एक लावारिश मुर्दा है /इस लावारिश मुर्दे को लाल कफ़न दे दो…’ जैसी पंक्तियों के कवि रमेशचन्द्र झा का 66 वर्ष की आयु में 07 अप्रैल, 1994, को पूर्वी चम्पारण जिला के सुगौली थाना क्षेत्र स्थित फुलवरिया गांव में देहांत हो गया था।

Recent Post