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Post: राजशाही नहीं, लोकतंत्र चाहिए…?

राजशाही नहीं, लोकतंत्र चाहिए…?

विशेष आलेख : मयूख बिस्वास

अनुवाद : संजय पराते

प्रस्तुति : अमिट लेख

रवींद्रनाथ टैगोर की कविता “इस राज्य में हम सब राजा हैं” (आमरा सबै राजा आमदेर ए राजार राजोत्वे) का मूल सिद्धांत यह है कि एक सच्चे लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति एक संप्रभु शासक होता है।

यह सिद्धांत संयुक्त राज्य अमेरिका में समकालीन अभिव्यक्ति पा रहा है। जहाँ एक ओर, अमेरिकी सरकार गाजा से लेकर वेनेजुएला तक अपनी साम्राज्यवादी आक्रामकता थोप रही है, वहीं दूसरी ओर, उसके नागरिक ट्रम्प प्रशासन के खिलाफ विरोध की एक नई लहर के साथ सड़कों पर उतर आए हैं। यह आक्रोश 19 अक्टूबर को चरम पर पहुँच गया, जब “नो किंग्स” आंदोलन ने हाल के अमेरिकी इतिहास के सबसे बड़े प्रदर्शनों में से एक का आयोजन किया, जिसमें पूरे संयुक्त राज्य में 70 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया। वाशिंगटन डी.सी., न्यूयॉर्क, बोस्टन, शिकागो, अटलांटा आदि जैसे प्रमुख शहरों सहित सभी 50 राज्यों में 2,700 स्थानों पर हुए इन विरोध प्रदर्शनों का आयोजन आम नागरिकों के एक गठबंधन द्वारा किया गया था। “नो किंग्स” आंदोलन सभी दमनकारी और तानाशाह शासकों के विरोध में खड़ा है, और प्रत्यक्ष लोकतंत्र और पारस्परिक सहायता के सिद्धांतों पर आधारित है। यहाँ तक कि द न्यू यॉर्क टाइम्स ने भी इन विरोध प्रदर्शनों पर रिपोर्ट करते हुए कहा, “ज़्यादातर जगहों पर माहौल (ट्रंप के प्रति) असम्मानजनक था, लेकिन शांतिपूर्ण और परिवार-अनुकूल था। बहरहाल, सभी उद्देश्य स्पष्ट था। हर जगह, हर भीड़ ने एक ही मंत्र साझा किया : कोई राजा नहीं।” संदेश स्पष्ट था, ‘अमेरिका का कोई राजा नहीं होगा। ‘यह पहली बार नहीं है, जब ट्रंप विरोधी इतने ज़ोरदार प्रदर्शन हुए हों। पहला “नो किंग्स डे” इस साल 14 जून को आयोजित किया गया था, जिसे रणनीतिक रूप से वाशिंगटन डी.सी. में एक सैन्य परेड के साथ मेल खाने के लिए समयबद्ध किया गया था, जिसमें अमेरिकी सेना की 250वीं वर्षगांठ और राष्ट्रपति ट्रंप का जन्मदिन दोनों मनाया गया था। आयोजकों ने इस अवसर का उपयोग सैन्यवाद और सत्ता के एकीकरण के एक खतरनाक तमाशे के विरोध में किया। हाल ही में अक्टूबर में हुआ विरोध प्रदर्शन उसी पहले की कार्रवाई का एक सीधा विस्तार था, जिसमें “नो किंग्स”, “तानाशाह मुर्दाबाद” और “संविधान बचाओ” जैसे नारे एक बार फिर पूरे देश में गूंज रहे थे। 18 अक्टूबर को हुए इस कार्यक्रम को “नो किंग्स II” नाम दिया गया था। यह कार्यक्रम दूसरी बार इसी बैनर के नीचे आयोजित किया जा रहा था और व्यापक पैमाने पर इसे विरोध प्रदर्शन के रूप में प्रचारित किया गया था। यह उन्हीं विषयों को जारी रखता है, लोकतांत्रिक जवाबदेही की माँग, नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा, सत्ता के दुरुपयोग का विरोध, और समर्थकों द्वारा “धीरे-धीरे बढ़ती तानाशाही” के रूप का विरोध। यह बढ़ता हुआ आंदोलन निस्संदेह ट्रम्प प्रशासन के लिए काफी परेशानी का सबब है। इस संघर्ष की गूंज सीनेटर बर्नी सैंडर्स द्वारा प्रभावशाली ढंग से व्यक्त की गई, जिन्होंने विरोध प्रदर्शन में बोलते हुए, इस आंदोलन की तुलना 1776 की अमेरिकी क्रांति से की। उन्होंने भीड़ को याद दिलाया कि एक समय लोगों को राजा के शासन से मुक्त होने के लिए पृथ्वी की सबसे शक्तिशाली सेना से लड़ना पड़ा था।

ट्रंप के खिलाफ बढ़ता गुस्सा फूट पड़ा :

डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ जनता का गुस्सा पूरे अमेरिका में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों में बदल गया है। इस साल की शुरुआत ट्रंप के पूर्व सहयोगी एलन मस्क द्वारा जन छंटनी के खिलाफ बड़े पैमाने पर हुए विरोध प्रदर्शनों से हुई थी, और उसके बाद जून में राष्ट्रपति द्वारा आयोजित एक सैन्य परेड के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए थे, लेकिन हाल ही में शनिवार को हुई रैली ने इन सभी को पीछे छोड़ दिया है। आयोजकों का दावा है कि यह अब तक की सबसे बड़ी रैली है। लाखों लोग ट्रम्प प्रशासन के अलोकतांत्रिक आचरण, कई शहरों में सैनिकों की तैनाती, आव्रजन-विरोधी छापे, संघीय अधिकारों के हनन, संवैधानिक उल्लंघन, लगभग 200,000 सरकारी कर्मचारियों की नियोजित छंटनी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमलों जैसी कई शिकायतों के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं। इन विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व वामपंथी दलों, श्रमिक संगठनों और नागरिक मंचों के गठबंधन द्वारा किया जा रहा है।

दमन और आव्रजन छापों ने आग में घी डालने का काम किया

यह गहरी विडंबना है कि डोनाल्ड ट्रंप की कठोर आव्रजन नीतियां खुद उनके पारिवारिक इतिहास के खिलाफ जाती है। वे स्वयं एक अप्रवासी के बेटे और एक प्राकृतिक नागरिक के पति हैं। इस रूप में ट्रंप की विरासत विरोधाभासी रूप से उन्हीं अप्रवासी यात्राओं में निहित है, जिन्हें आज उनका प्रशासन बाधित करने की कोशिश कर रहा है। बहरहाल, उनकी नीतियों को एक सोची-समझी क्रूरता के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसकी कई आलोचकों ने अमानवीय कहकर व्यापक रूप से निंदा की है। कईयों ने इसे सबसे ज्यादा कुख्यात “शून्य-सहिष्णुता” नीति बताया है, जिसने हज़ारों प्रवासी बच्चों को उनके माता-पिता से जबरन अलग कर दिया है और उन्हें पिंजरे जैसी स्थिति में बंद कर दिया है। मुस्लिमों की यात्राओं पर प्रतिबंध, शरणार्थियों के प्रवेश में भारी कमी और हिरासत शिविरों के विस्तार ने इसे और भी जटिल बना दिया। ट्रंप के इन कदमों ने सामूहिक रूप से अमेरिका की तस्वीर एक ऐसे राष्ट्र के रूप में पेश की है, जो शरण या बेहतर जीवन चाहने वालों के प्रति शत्रुतापूर्ण है। यह दृष्टिकोण उस अमेरिकी अप्रवासी आख्यान के साथ एक गहरा विश्वासघात है, जिसका सीधा लाभ उनके अपने परिवार को भी मिला था। ट्रंप की इन नीतियों ने एक ऐसा अलगाव पैदा किया है, जिसने उनकी नीतियों को एक व्यावहारिक शासन के रूप में नहीं, बल्कि सबसे कमजोर लोगों को लक्ष्य बनाकर हमला करने वाले शासन के रूप में प्रस्तुत किया है। आम जनता के आक्रोश का एक प्रमुख कारण है — हाल के महीनों में लॉस एंजिल्स और शिकागो जैसे शहरों में ट्रंप प्रशासन द्वारा संघीय बलों की विवादास्पद तैनाती। इसकी व्यापक रूप से आलोचना की गई है और इसे अवैध और लोकतांत्रिक असहमति को बलपूर्वक दबाने का प्रयास बताया गया है। इसके अलावा, आव्रजन और सीमा शुल्क प्रवर्तन (आईसीई) ने गैर-श्वेत इलाकों में आक्रामक छापेमारी की है, और इन्हीं शहरों से आए प्रदर्शनकारियों की उपस्थिति ने राष्ट्रीय रैली में एक शक्तिशाली व्यक्तिगत आयाम जोड़ दिया है।

मज़दूर और शिक्षक भी मैदान में उतरे :

“नो किंग्स” विरोध प्रदर्शन में ट्रेड यूनियनों की भारी भागीदारी देखी गई। इसमें सबसे आगे और केंद्र में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ टीचर्स था, जो एक शक्तिशाली शिक्षक संघ है। यह भागीदारी आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि राष्ट्रपति ट्रम्प ने पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद शिक्षा विभाग को भंग करने के अपने मंसूबे की घोषणा की थी। उन्होंने “वामपंथियों” पर पाठ्यक्रम को नियंत्रित करके स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों पर अनुचित प्रभाव डालने के लिए इस विभाग का उपयोग करने का आरोप लगाया था। भारत में संघी नेताओं ने भी ऐसी ही बयानबाज़ी की। शैक्षणिक संस्थानों को मिलने वाले संघीय अनुदान में कटौती के फैसले का सीधा असर सभी शिक्षकों के वेतन में कमी के रूप में सामने आया है और इसके कारण व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। हम पुलिस दमन और ट्रम्प प्रशासन की धमकियों के बावजूद गाजा में जनसंहार के खिलाफ अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हुए व्यापक विरोध प्रदर्शनों को भी याद कर सकते हैं।

असंतोष शहरों से आगे भी फैला :

इस विरोध प्रदर्शन में संगठित सरकारी कर्मचारियों की भी भारी उपस्थिति देखी गई। इस विरोध प्रदर्शन में युवाओं, महिलाओं और एलजीबीटी समुदाय के सदस्यों ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया। यह आंदोलन केवल शहरी केंद्रों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों में भी इसकी गहरी प्रतिक्रिया देखी गई। ट्रम्प प्रशासन की आर्थिक नीतियों के कारण अस्थिरता का सामना कर रहा अमेरिकी कृषि क्षेत्र असंतोष की आग में खौल रहा है। इसके बावजूद कि किसान और ग्रामीण मतदाता ट्रम्प के चुनाव अभियान के दौरान उनके सबसे वफादार समर्थकों में से थे, अब उनके प्रशासन ने सरकारी सब्सिडी में कटौती के संकेत दिए हैं, जिससे वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं।

तानाशाही रणनीति का एक पैटर्न :

सत्ता संभालने के बाद से, डोनाल्ड ट्रम्प और उनका प्रशासन विरोधी राजनीतिक दलों, राज्य सरकारों, नगरपालिका अधिकारियों और स्वायत्त संस्थाओं को कमज़ोर करने के लिए आक्रामक रूप से कदम उठा रहे है। “अवैध घुसपैठियों” पर कार्रवाई की आड़ में, सीमा शुल्क प्रवर्तन (आईसीई) अधिकारियों ने कई शहरों में गुंडों की तरह काम किया है। लंबे समय से रह रहे अप्रवासी मजदूरों को, जो दशकों से अमेरिका में है, अचानक निर्वासित किया जा रहा है। प्रशासन ने प्रमुख पदों पर अपने वफादारों की नियुक्ति करके, खुलेआम भाई-भतीजावाद किया है, और व्हाइट हाउस ने अपने राजनीतिक विरोधियों द्वारा शासित शहरों और राज्यों में संघीय सैनिकों को तैनात किया है।

गतिरोध में फंसी सरकार :

अतिरिक्त खर्चों में कटौती के नाम पर, प्रशासन ने हज़ारों सरकारी कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी है। यह विडंबनापूर्ण है कि ट्रम्प के निजी आवासों के नवीनीकरण और सौंदर्यीकरण के लिए लाखों डॉलर आबंटित किए गए हैं। इस बीच, प्रशासन का प्रस्तावित बजट अमेरिकी सीनेट में बहुमत हासिल करने में विफल रहा, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक गतिरोध पैदा हो गया है और सरकारी कामकाज पूरी तरह से ठप्प हो गया है। इसके कारण लगभग 20 लाख सरकारी कर्मचारियों का वेतन रुक गया है, विभिन्न सामाजिक कार्यक्रम रद्द कर दिए गए हैं, और शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और जलवायु परिवर्तन से संबंधित विभागों को बंद कर दिया गया है।

जनता के गुस्से पर प्रशासन का पलटवार :

आम जनता गुस्से के जवाब में, शीर्ष प्रशासनिक अधिकारियों और रिपब्लिकन नेताओं ने प्रदर्शनकारियों पर तीखे हमले किए हैं और विपक्ष पर अराजकता फैलाने के लिए छंटनी को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। बहरहाल, अमेरिकी जनता कुछ और ही कहानी बयां करती है। उनके नज़रिए से, लोग ट्रंप प्रशासन के मनमानीपूर्ण तौर तरीके, घोर अलोकतांत्रिक रवैये और खिझाने वाले व्यवहार से नाराज़ हैं। आर्थिक संकट को दूर करने के बड़े-बड़े वादों पर चुनाव प्रचार करने वाले ट्रंप अपने वादे पूरे करने में नाकाम रहे हैं। इसके बजाय, उनकी “क्रांतिकारी” टैरिफ नीतियों ने आपूर्ति श्रृंखला की समस्याओं को जन्म दिया है और ज़रूरी वस्तुओं की कीमतों में भारी उछाल ला दिया है।

अति-दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया :

शनिवार के विरोध प्रदर्शनों को लेकर दहशत फैलाने की कोशिश में, ट्रंप समर्थक एक पारंपरिक अति-दक्षिणपंथी रणनीति अपना रहे हैं : वे साम्यवाद के खिलाफ अमेरिका के मन में गहरे-पैठे डर का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा, वे प्रदर्शनकारियों को “हमास समर्थक” और “अमेरिका से नफ़रत करने वाले” करार दे रहे हैं, जबकि ट्रंप प्रशासन के एक पूर्व अधिकारी ने सभी प्रदर्शनकारियों पर “वामपंथी आतंकवादी” होने का आरोप लगाया है।अति-दक्षिणपंथी सीनेटर टेड क्रूज़ ने सोशल मीडिया पर बेबुनियाद दावा किया है कि “नो किंग्स” विरोध प्रदर्शन अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित किए गए थे। उन्होंने आगे यह भी आरोप लगाया कि विपक्षी नेता इन रैलियों में उग्र वामपंथियों को खुश करने के लिए भाषण दे रहे हैं और अपने राजनीतिक लाभ के लिए, सरकार द्वारा की जाने वाली संभावित छंटनी का फायदा उठा रहे हैं। ऐसा लगता है कि वामपंथियों का पुराना डर अब भी उन्हें सता रहा है। रिपब्लिकन नेताओं ने और कई भद्दे तरीकों से प्रतिक्रिया दी है और एआई से बनाई, विचलित करने वाली कई तस्वीरें भी साझा की हैं। सबसे भयावह तस्वीर खुद ट्रंप ने साझा की है : एक लड़ाकू विमान की तस्वीर, जिसमें ताज पहनकर ट्रंप बैठे हुए हैं और “नो किंग्स” प्रदर्शनकारियों पर भारी मात्रा में मल से बमबारी करते दिख रहे हैं।

मोदी और ट्रंप : एक ही थैली के चट्टे-बट्टे

नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप की राजनैतिक परियोजनाओं में अनोखी समानता है, क्योंकि ऐसा लगता है कि भारतीय प्रधानमंत्री ने अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा अपनाई गई रणनीति से बिल्कुल मिलती-जुलती रणनीति अपनाई है। दोनों ही समकालीन अति-दक्षिणपंथ के तत्वों को समेटे ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो जातीय-धार्मिक राष्ट्रवाद में नफरत को मिलाकर एक विस्फोटक बनाते हैं और इस मिश्रण का लाभ उठाते हैं। उनकी विचारधाराएँ मूलतः फासीवाद में निहित हैं — ट्रंप के लिए, यह श्वेत-केंद्रित “अमेरिका फर्स्ट” राष्ट्रवाद है, जबकि मोदी के लिए, यह “हिंदुत्व” राष्ट्रवाद है — जो व्यवस्थित रूप से धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिमों को, आंतरिक खतरे और आक्रमणकारी के रूप में चित्रित करता है। उनकी साझा इस्लामोफोबिक और ज़ेनोफोबिक बयानबाजी, जो प्रवासियों और अल्पसंख्यकों को देश के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने वाले अपराधियों के रूप में चित्रित करती है, उनके राजनीतिक एजेंडे के लिए एक केंद्रीय स्तंभ के रूप में कार्य करती है। इसके अलावा, उनके शासन भी एक ही तरीके से काम करते हैं : उन दोनों की नीतियाँ आक्रामक रूप से कॉर्पोरेट-समर्थक हैं, बड़े व्यवसायों का पक्ष लेती हैं और मजदूरों तथा ट्रेड यूनियनों के अधिकारों को खत्म करती हैं। प्रेस और न्यायपालिका सहित सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर गहरा हमला और स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं का जानबूझकर क्षरण इसे और भी जटिल बना देता है। अंततः, दोनों ही नेता एक ऐसे आधुनिक तानाशाही नीति के उदाहरण हैं, जहाँ लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर दिया जाता है और उसकी जगह एक विभाजनकारी, व्यक्तित्व-चालित राजनीति ले लेती है, जो निरंतर सांस्कृतिक युद्ध पर फलती-फूलती है।

उभरता विकल्प”

ट्रम्पवाद का एक जीवंत और आशाजनक विकल्प ज़ोर पकड़ रहा है। इस आंदोलन का नेतृत्व राजनेताओं की एक नई पीढ़ी कर रही है, जो विरोध को वास्तविक शक्ति में बदल रही है और इस बात को नए सिरे से परिभाषित कर रही है कि राजनीतिक रूप से क्या संभव है। इस मामले में सबसे आगे न्यूयॉर्क राज्य विधानसभा के सदस्य ज़ोहरान ममदानी जैसे जुझारू व्यक्ति हैं, जो इस बदलाव को सिर्फ़ शब्दों से नहीं, बल्कि अपने कार्यों से साकार करते हैं। डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट ममदानी और राज्य सीनेटर जबारी ब्रिसपोर्ट और संसद सदस्या समर ली जैसे उनके सहयोगी सिर्फ़ दक्षिणपंथ का विरोध करने तक सीमित नहीं है, बल्कि उससे कहीं आगे जाते हैं। उनका दृष्टिकोण परिवर्तनकारी है। ममदानी सिर्फ़ भाषण नहीं देते ; वे अपने पद का इस्तेमाल किरायेदारों को संगठित करके लापरवाह मकान मालिकों से मुकाबला करने और आवास संबंधी अन्याय को सीधे चुनौती देने के लिए करते हैं। उन्होंने धन के पुनर्वितरण और सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार पर केंद्रित कई साहसिक सुधारों का प्रस्ताव रखा है। इनमें किराया-मुक्त बसें, शहर के स्वामित्व वाली किराना दुकानें, बच्चों की मुफ़्त देखभाल और सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित किफ़ायती आवास का व्यापक विस्तार आदि शामिल हैं — ये सभी ऐसे मुद्दे हैं, जो न्यूयॉर्क के मज़दूर वर्ग की तात्कालिक ज़रूरतों को संबोधित करते हैं। उनके इस अभियान ने इन भौतिक मुद्दों और उनके प्रस्तावित समाधानों पर उत्साहपूर्ण और सुलभ तरीके से बात करने के लिए चतुर और आकर्षक सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया है। यह नई राजनीतिक नस्ल समझती है कि क्वींस की सड़कों से लेकर गाज़ा तक, ये संघर्ष आपस में जुड़े हुए हैं। उन्होंने “आवास गारंटी” के लिए संघर्ष किया है और साथ ही, इज़राइली सेना से सार्वजनिक धन वापस लेने के लिए दबाव बनाने का भी प्रयास किए हैं। ऐसा करके, वे साबित करते हैं कि साहसिक और नैतिक स्पष्टता की राजनीति चुनाव जीत सकती है और मज़दूर वर्ग को वास्तविक विजय दिला सकती है। निराशा का एक शक्तिशाली प्रतिकार है उनकी सफलता, जो यह दर्शाती है कि बहुजातीय और समाजवादी विचारधारा वाला आंदोलन कोई दूर का सपना नहीं है, बल्कि एक उभरती हुई शक्ति है।

(लेखक स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया – एसएफआई के पूर्व महासचिव हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)

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