शिक्षकों का काम बच्चों को पढ़ाना है, लेकिन बिहार के सरकारी स्कूलों के मास्टर साहब बच्चों को पढ़ाने के बजाय सरकार के भांति-भांति प्रकार के गैर-शैक्षणिक कार्यों में व्यस्त रहते है
शिक्षक पढ़ाने के अतिरिक्त, शौचालय का भी निरीक्षण करेंगे
✍️ पूजा शर्मा
– अमिट लेख
पटना, (कार्यालय ब्यूरो)। शिक्षकों का काम बच्चों को पढ़ाना है, लेकिन बिहार के सरकारी स्कूलों के मास्टर साहब बच्चों को पढ़ाने के बजाय सरकार के भांति-भांति प्रकार के गैर-शैक्षणिक कार्यों में व्यस्त रहते है। कभी मास्टर साहब खुले में शौच करने वालों की निगरानी करते है, तो कभी शौचालय की गिनती करते है। शिक्षकों के जिम्मे पढ़ाई के अलावा भी ऐसे कई काम हैं जिसे अगर वे करने बैठे तो छात्रों की पढ़ाई पर उसका असर या यूं कहे कि प्रतिकूल असर पड़ना तय है। बिहार के शिक्षकों के बारे में एक आम धारणा है कि वे अपना काम नहीं करते है। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि बिहार के शिक्षक बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए जितना काम नहीं करते उससे कई ज्यादा दूसरे कामों को संपन्न करने में लगे रहते है। ऐसा करना उनकी मजबूरी होती है। शिक्षा विभाग की ओर से शिक्षकों को नए आदेश मिलते रहते है। वोटिंग के कार्यों को संपन्न कराने से लेकर शराब पकड़ने के लिए शिक्षकों की ड्यूटी लगायी जाती है। वहीं शिक्षा विभाग ने उन्हें बोरा और कबाड़ बेचने का काम भी दे दिया है। शिक्षकों से बातचीत के बाद हमने जो उनके कामों की लिस्ट बनाई है उसमें कुल 17 कार्य सामने आए है। शिक्षकों को चुनाव से पहले बीएलओ का कार्य करना और मतदाता सूची तैयार करना होता है। चुनाव के समय चुनाव कार्य में लगना और चुनाव संपन्न कराना उन्हीं के कंधों पर होता है। दंगा और सामाजिक तनाव के समय सामाजिक सौहार्द कायम करने का कार्य, मिड डे मील भोजन तैयार कराना और बच्चे मिड डे मील खा रहे हैं या नहीं इसकी निगरानी करना, मिड डे मील के लिए उपयोग में लाई जाने वाली बच्चों के थाली, कटोरा, लोटा जैसे बर्तनों की गिनती करना और हिसाब रखना, मिड डे मील के लिए आने वाले खाद्यान्न खाली होने पर बोरा को बेचने काम भी शिक्षकों का ही है। उपरोक्त कार्यों के अलावा भी कई और काम हैं जिनमें समय-समय पर मकानों की गिनती करना, जानवरों की गणना करना, जाति की गणना करना, जनगणना करना, शौचालय की गणना करना, खुले में शौच करने वालों की पहचान करना। किसी पर्व, त्योहार और मेला के समय भीड़ नियंत्रण कार्य करना, स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों का रूटीन इम्यूनाइजेशन देखना और कराना, महामारी के समय महामारी प्रबंधन का कार्य करना ( उदाहरण के तौर पर कोरोना के समय कोरोना किट घूम-घूम कर बांटना ), बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय आपदा प्रबंधन का कार्य करना और स्कूल में बच्चों को पढ़ाना है। पिछले कुछ समय से शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक स्कूलों में पहुंचकर शिक्षकों की क्लास लगाते दिख रहे है। कई तरह के फरमान भी जारी किए गए है। शिक्षकों को पढ़ाने के समय खड़ा रहना, पढ़ाते समय मोबाइल का इस्तेमाल वर्जित, ससमय स्कूल आना जैसे आदेश दिए गए। वहीं गैर शैक्षणिक कामों से पहले दूरी बनाने का आदेश आया लेकिन बाद में केके पाठक बैकफुट पर आ गए। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इतनी सख्ती से बिहार की शिक्षा व्यवस्था में कोई सुधार होगा? अगर शिक्षकों के पास पढ़ाने के अलावा दूसरे काम रहेंगे तो वे बच्चों की पढ़ाई पर कैसे फोकस करेंगे? सवाल ये भी उठाता है कि आखिर एक शिक्षक कितने काम करेंगे? क्या इतने कामों का निर्वहन करते हुए ढंग से बच्चों को पढ़ाना मुमकिन हो पाएगा? शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक ने अब शिक्षकों को नई जिम्मेदारी कबाड़ बेचने की दी है। दरअसल विभिन्न स्कूलों के औचक निरीक्षण के दौरान केके पाठक को स्कूल में काफी कबाड़ नजर आया। टेबल, कुर्सी, किताबें, ऐसे में इसके निष्पादन के लिए उन्होंने शिक्षा पदाधिकारी को निर्देश दिया है कि अपने अंडर आने वाले विद्यालयों के कबाड़ को खाली कराएं। ऐसे में कबाड़ बेचने का काम भी अब शिक्षकों को करना है और प्राप्त राशि को विद्यालय के जीओबी में जमा कराना है। शिक्षकों को जाति गणना का काम भी करना होता है। वहीं कभी शौचालय गणना करते है। इस प्रकार के दर्जन भर से अधिक कार्य हैं जिसे मास्टर साहब करते है। इस दौरान बच्चों को पढ़ाने का कार्य लगभग ठप हो जाता है। इन विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावक कहते हैं कि प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने के लिए सक्षम नहीं हैं इसीलिए सरकारी विद्यालय में बच्चों को भेजते है। सरकारी स्कूल में नेता मंत्री और सरकारी अधिकारियों के बच्चे नहीं पढ़ते इसलिए शिक्षकों को बच्चों की पढ़ाई से दूर करके उन्हें दूसरे कार्यों में लगा दिया जाता है।