आलेख : राजेंद्र शर्मा
प्रस्तुति : अमिट लेख
बेशक, 4 जून की मतगणना के बाद, नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बावजूद, इस चुनाव के जनादेश की प्रकृति पर और संघ-भाजपा के जीत के दावों पर, गंभीर सवाल उठे हैं और अब तक बने हुए हैं। ये सभी सवाल, जो संघ-भाजपा के ‘जो जीता वही सिकंदर’ के तर्क पर टिके जीत के दावों को प्रश्नांकित करते हैं, इस कथित जीत पर मुख्यत: दो पहलुओं से सवाल उठाते हैं। पहला, यह कथित जीत किन परिस्थितियों में और किस तरह हासिल की गयी है और इसलिए क्या इसे वाकई जीत माना जा सकता है? इस पहलू से उठे सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस चुनाव की प्रकृति और चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के संचालन से संबंधित थे। यह बलपूर्वक दर्ज किया गया था कि ये चुनाव व्यवहार में, पूरी तरह से गैर-बराबरी के मैदान में हो रहे थे, जहां सत्ता पक्ष को पहले ही हर प्रकार से बढ़त हासिल थी, जबकि विपक्ष को हाथ पीठ के पीछे बांधकर लड़ना पड़ रहा था। मोदी राज के दस साल में, चुनावी बांड समेत विभिन्न तरीकों से आर्थिक संसाधनों के अनुपातहीन तरीके से सत्ताधारी दल के पक्ष में और विपक्ष के खिलाफ मोड़े जाने ने और इजारेदारों के द्वारा पैसा लगाए जाने की इसी प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर, मीडिया में सत्ताधारी दल के लगभग पूर्ण बोलबाले ने, चुनावी मुकाबले को जितना असमानतापूर्ण बना दिया था, वह किसी भी वस्तुगत टीकाकार से छिपा नहीं था। इसके ऊपर से सत्ता के अधिक से अधिक तानाशाहीपूर्ण होते आचरण ने, इस ऊंचे-नीचे मैदान को जिस तरह किसी वास्तविक मुकाबले के लिए और भी अनुपयुक्त बनाया था, वह भी किसी से छुपा हुआ नहीं था। केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग कर, चुनाव की पूर्व-संध्या में दो-दो मुख्यमंत्रियों को, जो अपनी-अपनी पार्टियों के शीर्ष नेता भी हैं, जेल में बंद कराए जाने से लेकर, विरोधी राजनीतिक पार्टियों के खाते जाम कराए जाने तक, इस चुनाव के ऐन पहले तथा चुनाव के दौरान हुई अभूतपूर्व ज्यादतियों को भी, सभी ने कम से कम दर्ज जरूर किया था। कोढ़ में खाज यह कि चुनाव आयोग ने, जिसके ऊपर स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी थी, मुकाबले के मैदान को पूरी तरह से ऊबड़-खाबड़ तथा वास्तव में अखेल्य बनाने वाली, इन तमाम स्थितियों को न सिर्फ प्रदत्त या सामान्य मानकर स्वीकार कर लिया था, बल्कि खुद भी अपनी करनियों और अकरनियों से, मुकाबले को और एकतरफा बनाने में सक्रिय रूप से योग दिया था। खुद प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में, सत्ताधारी दल द्वारा अपने अल्पसंख्यक विरोधी सांप्रदायिक रुख के अनुरूप, खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक प्रचार किए जाने को, देश के चुनाव कानून तथा आदर्श चुनाव संहिता के तहत स्पष्ट मनाही के बावजूद, जिस तरह चुनाव आयोग ने चलने दिया था और हर तरफ से शिकायतें आने के बावजूद, अंत-अंत तक कोई कार्रवाई नहीं की थी, उसे भी सभी ने दर्ज किया था। दुर्भाग्य से चुनाव आयोग का यह पक्षपात, सत्तापक्ष के अतिक्रमणों के बचाव तक ही सीमित नहीं रहा था। यह पक्षपात खुद उसके सत्तापक्ष के सांप्रदायिक रुख के रंग में रंगने तक भी जाता था और इसके चलते, चुनाव से पहले अनेक स्थानों पर बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों के नाम मतदाता सूचियों से काटे जाने से लेकर, मतदान के दौरान कई चुनाव क्षेत्रों में बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों तथा अन्य कमजोर तबके के लोगों को मताधिकार से वंचित किए जाने तक की शिकायतें सप्रमाण सामने आयीं, जिन्होंने चुनाव की निष्पक्षता पर ही सवाल खड़े कर दिए। दुर्भाग्य से चुनाव आयोग इतने पर भी नहीं रुका। चुनाव के दौरान उसने चरणवार मतदान के पूरे आंकड़े देने में अनुचित देरी लगाई और सुप्रीम कोर्ट तक विवाद पहुंचने के बाद जब देरी से अंतिम आंकड़े जारी भी किए, मतदान के दिन ही देर शाम को जारी मतदान के कच्चे आंकड़ों और अंतिम आंकड़ों में संदेहास्पद तरीके से भारी और असामान्य अंतर था। दूसरा पहलू खुद उस जनादेश का था, जो 4 जून को हुई मतगणना में निकल कर सामने आया था। बेशक, इस मतगणना से निकला नतीजा ही था कि नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी। लेकिन, इसी मतगणना से दूसरे उल्लेखनीय नतीजे भी निकले थे। इनमें सबसे महत्वपूर्ण नतीजा तो यही था कि सत्ताधारी भाजपा, पिछले दो चुनावों के विपरीत, बहुमत से काफी पीछे, 240 के आंकड़े पर ही अटक गयी थी और इसके चलते अपने गठबंधन के सहयोगी दलों के समर्थन के बल पर ही, बहुमत का आंकड़ा पार कर पाई थी। इस तरह, इस चुनाव का जनादेश, सत्ताधारी भाजपा को सत्ता से दूर रखे जाने और सहयोगी पार्टियों के सहारे ही सरकार बनाने दिए जाने का जनादेश था। चार सौ पार के नारे और मोदी के चेहरे तथा मोदी की गारंटी के हथियार के सहारे चुनाव मुकाबले में उतरी, सत्ताधारी भाजपा और उसके सुप्रीमो के अपराजेयता के अहंकार के टूटने का जनादेश था। यह सत्ताधारी पार्टी की राजनीतिक व नैतिक हार का जनादेश था। फिर भी, इस चुनाव नतीजे के फलस्वरूप एक बार फिर मोदी के नेतृत्व में, बेशक एनडीए की सरकार का बनना, स्वयंसिद्घ मान लिया गया था। कम से कम इस चुनाव नतीजे पर छुट-पुट सवालों के सिवा कोई बड़ा सवाल नहीं था कि भाजपा-240 तथा एनडीए 292 और इंडिया 232। लेकिन अब, महाराष्ट्र के एक प्रतिष्ठित नागरिक अधिकार मंच, वोट फॅार डैमोक्रेसी (वाइएफडी) ने एक विस्तृत रिपोर्ट जारी कर, चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाने से आगे जाकर, चुनाव नतीजे की इन संख्याओं पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं और पूछा है कि एनडीए की कथित जीत भी कहीं चोरी की जीत तो नहीं है! वाईएफडी की रिपोर्ट में मतदान के सभी चरणों में मतदान की शाम को जारी मत प्रतिशत के आंकड़ों औैर मतदान के अंतिम आंकड़ों में भारी और असामान्य अंतर की विशेष रूप से गहराई से छानबीन की गयी है। रिपोर्ट रेेखांकित करती है कि मतदान के फौरन बाद जारी आंकड़ों और अंतिम आंकड़ों में लगभग 5 करोड़ (एकदम सटीक संख्या 4,65,46,885) वोट का अंतर है। रिपोर्ट रेखांकित करती है कि इससे पहले के चुनावों में मतदान की शाम जारी किए जाने वाले कच्चे मतदान अनुमान और मतदान की अंतिम गणना के बीच 1 फीसद से ज्यादा वृद्घि कभी दर्ज नहीं की गयी थी। लेकिन, 18वीं लोकसभा के चुनाव के सभी सात चरणों में यह अंतर 3.2 से 6.32 फीसद के बीच रहा है, जो पूरी तरह से असामान्य है। रिपोर्ट बताती है कि यह अंतर “आंध्र प्रदेश में 12.54 फीसद और ओडिशा में 12.48 फीसद” रहा है, जबकि कुल मिलाकर इस अंतर का औसत 4.72 फीसद बैठता है। वाईएफडी की रिपोर्ट की इस टिप्पणी से शायद ही कोई असहमत होगा कि ‘ईसीआई ने अब तक इस बढ़ोतरी के पीछे कोई विश्वसनीय कारण नहीं बताया है।’ याद रहे कि चुनावी प्रक्रिया के दौरान भी, विवाद के सुप्रीम कोर्ट पीके दरवाजे तक पहुंचने के बाद, जब चुनाव आयोग ने देरी से ही सही अंतिम आंकड़े जारी करना शुरू किया था, उसी समय वोट में इस असामान्य बढ़ोतरी पर विपक्ष की ओर से और निष्पक्ष प्रेक्षकों द्वारा भी काफी सवाल उठाए गए थे। एक पूर्व-मुख्य चुनाव आयुक्त ने बाकायदा अंतिम आंकड़े जारी किए जाने में देरी और इस भारी अंतर को ”समझ में न आने वाला” तक कहा था। जाहिर है कि तब भी चुनाव आयोग इसकी कोई विश्वसनीय सफाई पेश नहीं कर पाया था। बहरहाल, चुनाव आयोग की चुनाव के मामले में सर्वाधिकार-संपन्नता के दबाव में और चुनाव की हड़बड़ी में, यह मामला इसलिए दबकर रह गया कि यह सीधे चुनाव आयोग की ईमानदारी पर सवाल खड़ा करता था। बहरहाल, अब वाईएफडी की रिपोर्ट में जोरदार तरीके से यह सवाल उठाया गया है। इस असामान्य बढ़ोतरी के सवाल को उसके तार्किक निष्कर्ष तक ले जाते हुए, वाईएफडी का अध्ययन बताता है कि जिन 15 राज्यों में अंतिम मतदान प्रतिशत में यह असाधारण बढ़ोतरी दर्शायी गयी थी, उनमें 79 सीटों पर भाजपा के नेतृत्ववाले एनडीए की जीत का अंतर, वोट में हुई इस बढ़ोतरी से कम था यानी वोट में यह बढ़ोतरी, इन सीटों के नतीजे को बदलने के लिए काफी थी। इनमें ओडिशा की 18, महाराष्ट्र की 11, प. बंगाल की 10, आंध्र प्रदेश की 7, कर्नाटक की 6, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान की 5-5, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश तथा तेलंगाना की 3-3, असम की 2 और अरुणाचल प्रदेश, गुजरात तथा केरल की एक-एक सीटें शामिल थीं। इसके अलावा वाईएफडी की रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया है कि 10 राज्यों में एनडीए के 18 उम्मीदवारों नेे, बहुत मामूली अंतर से जीत हासिल की है। ये सभी ऐसे चुनाव क्षेत्र हैं जहां नागरिक समाज के सदस्यों और विपक्षी उम्मीदवारों ने, मतदान के और मतगणना के दौरान, ईवीएम की खराबी और गड़बड़ियों की गंभीर शिकायतें दर्ज कराई थीं। इनमें बिहार में सारण, महाराष्ट्र में उत्तर-पश्चिम मुंबई, उत्तर प्रदेश में फर्रुखाबाद, बांसगांव तथा फूलपुर आदि सीटें शामिल हैं, जहां से एनडीए के उम्मीदवार बहुत कम अंतर से जीते हैं। इस सब के आधार पर रिपोर्ट यह वैध सवाल उठाती है कि इस चुनाव में एनडीए की जीत, एक चुराई गई जीत भी हो सकती है। अपने तमाम सवालों के संदर्भ में वाईएफडी ने सभी संदेहों तथा आरोपों की ‘स्वायत्त निगरानी में एक स्वतंत्र जांच’ की मांग की है, जिस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। बहरहाल, फिलहाल इस तरह की जांच की ज्यादा संभावना भले ही नहीं लगे, वाईएफडी की रिपोर्ट ने चुनाव आयोग की भूमिका और निष्पक्षता से जुड़े उन सभी सवालों को नये सिरे से उठा दिया है, जो इस आम चुनाव के दौरान लगातार उठते रहे थे। यह रिपोर्ट याद दिलाती है कि भारत के चुनाव आयोग के साथ सब कुछ ठीक किसी भी तरह से नहीं है, कि मौजूदा चुनाव आयोग डा. आम्बेडकर द्वारा संविधान में संबंधित धाराओं पर बहस के दौरान व्यक्त की गई इसकी आशंकाओं को सच साबित करता लगता है कि संविधान में रोक-थाम के प्रावधान के अभाव में, चुनाव आयुक्त (अब मुख्य चुनाव आयुक्त) बनने वाला, चुनाव आयोग को ‘कार्यपालिका के अंगूठे के नीचे’ पहुंचा सकता है। इस लिहाज से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में पिछले ही वर्ष संसद द्वारा बनाये गये नये कानून का प्रतिरोध महत्वपूर्ण हो जाता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित की गई प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी में से, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को निकालकर और उसकी जगह पर प्रधानमंत्री द्वारा नामजद एक अन्य मंत्री को शामिल कर, नियुक्ति समिति में और उसके जरिए चुनाव आयोग में कार्यपालिका की ही मनमर्जी चलना सुनिश्चित किया गया है। चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित किए बिना, चुनाव की स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता भी सुनिश्चित नहीं की जा सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)