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मछुआरों की अनोखी नाव रैली, किसान सभा ने किया समर्थन
रिपोर्ट : संजय पराते
– अमिट लेख
बुका, (कोरबा)। छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला एक आदिवासी बहुल जिला है, जो संविधान की 5वीं अनुसूची के अंतर्गत आता है। इस कारण यहां के विकास कामों के लिए ग्राम सभाओं की सहमति जरूरी है, जिसका उल्लेख पेसा कानून में किया गया है।
लेकिन वास्तविकता यह है कि राज्य में चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की, दोनों ने इस कानून का उल्लंघन करके जल, जंगल, जमीन, खनिज जैसी प्राकृतिक संपदा को निजी ठेकेदारों और कॉरपोरेटों के हाथों सौंपने की ही साजिश रची है। सन 1980 के दशक में हसदेव नदी पर पोढ़ी उपरोडा ब्लॉक में बाँगो बांध का निर्माण किया गया था, जिसमें 58 आदिवासी बाहुल्य गाँव पूर्णतः डूब गए और हजारों परिवारों को विस्थापित होना पड़ा। अपने गांव और जमीन, अपनी खेती-बाड़ी और आजीविका से उन्हें स्थाई रूप से वंचित कर दिया गया। विस्थापितों को मुआवजा तथा पुनर्वास देने में भी सरकार की गंभीर विसंगतिया सामने आई, लेकिन तत्कालीन कलेक्टर ने विस्थापितों को यह आश्वासन देकर शांत कर दिया था कि डूबान क्षेत्र में सभी विस्थापित परिवार मछली पालन कर अपना जीवन यापन कर सकेंगे। इसके बाद इस क्षेत्र में कई मछुआरा सहकारी समितियों का गठन भी किया गया। इन सहकारी समितियों के गठन के बाद विस्थापित परिवारों ने रॉयल्टी के आधार पर 14-15 सालों तक मत्स्य पालन भी किया। वर्ष 2000 में मध्यप्रदेश को विभाजित करके छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किया गया और प्राकृतिक संपदा की कॉर्पोरेट लूट की मुहिम शुरू हो गई। तमाम संसाधन निजी हाथों को सौंपे जाने लगे। अजीत जोगी की कांग्रेस सरकार ने, जो छत्तीसगढ़ की पहली सरकार थी, पूरे राज्य परिवहन निगम को ही समाप्त कर दिया और इस निगम से जुड़ी अरबों रुपयों की संपत्ति निजीकरण के यज्ञ में स्वाहा कर दी गई। निजीकरण की नीति ने राज्य में आम जनता की आजीविका पर बड़े पैमाने पर हमला किया और बांगो बांध से प्रभावित मछुआरे भी अछूते नहीं रहे। छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद सरकार की मत्स्य नीति में भी परिवर्तन आया और जोगी के बाद बनी भाजपा सरकार ने अब बांगो बांध को ठेके पर देने का निर्णय लिया। इससे मछली पालन हेतु बांध पर नियंत्रण का अधिकार निजी ठेकेदारों के पास चला गया और स्थानीय विस्थापित आदिवासी अपने ही जमीन और जल पर निजी ठेकेदारों के द्वारा मजदूर बना दिए गए। विस्थापित आदिवासियों ने विरोध तो किया, लेकिन संगठन और आंदोलन के अभाव में उनकी आवाज को किसी ने नहीं सुना। पिछले दो दशकों से बुका विहार जलाशय को निजी ठेकेदारों को सौंपा जा रहा है। पिछली ठेके की अवधि जून 2025 को समाप्त हो गई, जिसके बाद पुनः10 वर्षों की लीज हेतु भाजपा सरकार द्वारा निविदा जारी कर दिया है। अपनी जमीन और रोजी-रोटी से वंचित मछुआरों ने यह तय किया है कि वे अब ठेकेदारों के लिए काम नहीं करेंगे और मत्स्य नीति में संशोधन के लिए अपनी लड़ाई लड़ेंगे, ताकि पहले की तरह रॉयल्टी के आधार पर मछली पालन का उन्हें अधिकार मिले। इस मांग के आधार पर बांगो बांध के कारण स्थापित 52 गांवों के मछुआरे लामबंद हो गए हैं और उन्होंने आदिवासी मछुआरा संघ (हसदेव जलाशय) नामक संगठन का निर्माण भी कर लिया है। विस्थापित आदिवासियों की मांगों को तब और बल मिला, जब उन्हें अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा और हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति जैसे जुझारू संगठनों का समर्थन मिला। किसान सभा कोरबा जिले में खनन प्रभावित विस्थापितों की मांगों पर और हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति अडानी द्वारा कोयला खनन के लिए हसदेव के जंगल और आदिवासियों को उजाड़ने के खिलाफ लंबे समय से संघर्ष कर रही है। इन दोनों संगठनों के नेताओं की उपस्थिति में 5 अक्टूबर को बांगो बांध प्रभावित आदिवासियों का सम्मेलन संपन्न हुआ, जिसे संबोधित करते हुए प्रशांत झा, दीपक साहू, रामलाल करियाम, मुनेश्वर पोर्ते, फिरतू बिंझवार, अथनस तिर्की, रामबली और विभिन्न वक्ताओं ने हसदेव जलाशय के निजीकरण का विरोध किया और मछुआरों के मछली पालन के जरिए आजीविका कमाने के नैसर्गिक अधिकार का समर्थन किया। सम्मेलन के बाद सैकड़ों मछुआरों ने हसदेव जलाशय में नाव रैली करके प्रशासन से निविदा रद्द करने की मांग की। 6 अक्टूबर 2025 को एस.डी.एम. कार्यालय का घेराव करके एक ज्ञापन भी दिया गया।







