



प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई के जीवन दर्शन से प्रेरणा ले नई युवा पीढ़ी
✍️ सह-संपादक
– अमिट लेख
बेतिया, (मोहन सिंह) 18 जून 2023। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन एवं विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन। दी गई भावभीनी श्रद्धांजलि। सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन के सभागार सत्याग्रह में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की 165 वी शहादत दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सचिव सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन डॉ एजाज अहमद अधिवक्ता, डॉ सुरेश कुमार अग्रवाल चांसलर प्रज्ञान अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय झारखंड, डॉ शाहनवाज अली, डॉ अमित कुमार लोहिया, मदर ताहिरा चैरिटेबल ट्रस्ट की निदेशक एस सबा ने संयुक्त रूप से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि लक्ष्मीबाई का उपनाम मणिकर्णिका था, इसीलिए अपने बाल्यकाल में वे मनुबाई के नाम से जानी जाती थीं। सन् 1838 में गंगाधर राव को झांसी का राजा घोषित किया गया। सन् 1850 में मनुबाई से रानी लक्ष्मी बाई का विवाह हुआ। सन् 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया। सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को उनकी मृत्यु हो गई। महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेजी सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। 27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। पोलेटिकल एजेंट की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ। झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं। यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ। अंग्रेजों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग भभक उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्ण अवसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई। अवघ के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे। भारत की जनता में विद्रोह की ज्वाला भभक गई। समस्त देश में सुसंगठित और सुदृढ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तिथि 31 मई 1857 निश्चित की गई, लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और 7 मई 1857 को मेरठ में तथा 4 जून 1857 को कानपुर में, भीषण विप्लव हो गए। कानपुर तो 28 जून 1857 को पूर्ण स्वतंत्र हो गया। अंग्रेजों के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया। इस अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि उन्होंने सागर, गढ़कोटा, शाहगढ़, मदनपुर, मडखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर अधिकार कियाऔर नृशंसतापूर्ण अत्याचार किए। फिर झांसी की ओर अपना कदम बढ़ाया और अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगा लिया। लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। इस अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि 23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने झांसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंग्रेजी सेना के छक्के छूट गए। रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। इस अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंगरेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं। इस अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंगरेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया। कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय का नहीं था, अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था। इधर सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। इस अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की। ऐसी महान भारत को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं। झांसी की रानी वीरगति को प्राप्त हुई, लेकिन किसी भी राजा महाराजा में हिम्मत न रही कि रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार करा सके। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के मुस्लिम भाई नवाब अली बहादुर जो बांदा के नवाब थे उन्होंने अपनी जान की परवाह किए बगैर रानी लक्ष्मीबाई का वीरगति प्राप्त होने की सूचना मिलते ही अंतिम संस्कार कराया।अंग्रेज़ों से लड़ाई के समय ग्वालियर के महाराजा सिंधिया तो रानी लक्ष्मी बाई के ख़िलाफ़ थे लेकिन तात्या टोपे और बांदा के नवाब अली बहादुर उनके साथ थे। नवाब बहादुर बाजीराव पेशवा और मस्तानी के वंशज थे।
आख़िरी लड़ाई में थे महारानी लक्ष्मी बाई के साथ कहा जाता है कि महारानी लक्ष्मी बाई नवाब अली बहादुर को राखी बांधती थी और उन पर बहुत भरोसा करती थी। लक्ष्मी बाई ने अपनी आख़िरी लड़ाई अंग्रेजो के ख़िलाफ़ लड़ी थी और इसमें नवाब बहादुर भी उनके साथ थे। अंतिम संस्कार के बाद नवाब अली बहादुर को अंग्रेज़ों ने कैद कर लिया। लक्ष्मी बाई के अंतिम संस्कार के बाद नवाब अली बहादुर को अंग्रेज़ों ने क़ैद कर महू की जेल में बंद कर दिया था। उन्हें कुछ समय इंदौर में भी नज़रबंद रखा गया और बाद में बरनारस भेज दिया जहां उनकी मृत्यु हो गई। झांसी में आज भी कई हिंदू-मुसलमान लक्ष्मी बाई और नवाब बहादुर के भाई-बहन के रिश्तों की परंपरा को निभाते हुए हिंदू बहने मुसलमान भाईयों को राखी बांधती हैं।