व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
– अमिट लेख
भई, सिचुएशन बहुत ही कन्फ्यूजनात्मक हो रखी है। मोदी जी ने पहले एक तरफ परिवारवाद पर हमला बोल रखा था और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार पर। परिवारवादी नेताओं ने देश का नाश कर दिया।
परिवारवादी युवाओं के मौकों पर कुंडली मारकर बैठे हैं; दूसरों को आगे नहीं बढऩे दे रहे हैं, वगैरह, वगैरह। लोग पूछते – परिवारवादी की पहचान? मोदी जी खुद तो जवाब नहीं देते, पर उनका जवाब साफ था। उनके खिलाफ, सो परिवारवादी; उनके साथ, सो मैरिटवादी! जो परिवारवादियों को छोडक़र उनके पाले में आ जाए, वह और पक्का मैरिटवादी – चुनाव से मैरिटवादी! और हां! उनसे ज्यादा प्रामाणिक परिवारवाद-विरोधी कौन होगा? परिवार ही नहीं बनने दिया। घर त्यागा, पत्नी त्यागी, कि न रहे बांस, न बजे ससुरी बांसुरी। और भ्रष्टाचार! उसके खिलाफ तो मोदी जी ने दिल्ली की गद्दी पर आने से पहले से जंग का एलान कर रखा था। जब कांग्रेस का राज था, तब कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग थी। जब अपना राज आ गया, तब भी मोदी जी उसी रास्ते पर डटे रहे और कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग जारी रखी। बाकी पब्लिक के लिए — न खाऊंगा न खाने दूंगा! पर तब एक आसानी थी। जो परिवारवादी, वह भ्रष्ट; जो भ्रष्ट, वह परिवारवादी और जो विरोधी, वह दोनों! पर अब तो जैसे सब उलट-पुलट ही हो गया है। गांधी मैदान की रैली में लालू जी ने नरेंद्र मोदी के अपना परिवार ही बनने नहीं देने के बारे में एक जरा सा सवाल क्या पूछ दिया, सब गड़बड़ा गया। अब मोदी जी सब छोडक़र, ‘‘मेरा भारत’’ के आगे, ‘‘महान’’ काटकर ‘‘मेरा परिवार’’ लगा रहे हैं। भक्त लोग बढ़-चढक़र खुद को मोदी का परिवार बता रहे हैं। टीवी-अखबारों में विज्ञापन किसी को मोदी जी का उज्ज्वला सिलेंडर वाला परिवार बता रहे हैं, तो किसी को पीएम आवास वाला परिवार, किसी को आयुष्मान वाला परिवार, तो किसी को पीएम किसान वाला परिवार। जोशीले भक्त तो एक सौ चालीस करोड़ के एक सौ चालीस करोड़ को, मोदी जी का परिवार बनाने पर तुले हुए हैं। पर अब लोग पूछ रहे हैं कि जब सब के सब के सब परिवारी हैं, तो भ्रष्टाचारी कहां हैं? न खाऊंगा तक तो चलो फिर भी ठीक है, पर मोदी जी ‘‘न खाने दूंगा’’ किस के परिवार वालों के लिए कह रहे थे? अपने परिवार वालों के लिए? ऊपर से सुप्रीम कोर्ट वालों ने चुनावी बांड का भानुमती का पिटारा ही खोल दिया। हल्ला मचा हुआ है कि मोदी जी के राज में खिलाने वालों ने डटकर खिलाया है। और भगवा परिवार वालों ने भी बिना डकार तक लिए, डटकर खाया है। यानी परिवार भी है, भ्रष्टाचार भी है। लोग कह रहे हैं कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा को बदलकर, अब तो खूब खाऊंगा और पूरे परिवार को खिलाऊंगा कर देना चाहिए। पर ये मांग सही नहीं है। मोदी जी का परिवार बड़ा सही, पर बांड का छ: हजार करोड़ रूपये पूरा परिवार भी खाए तो क्या खा सकता है? तिजोरियों के मामले में, खाने और खिलाने का मुहावरा फेल है। बांड-वांड का मामला, खाने और खिलाने से ऊपर का मामला है। मोदी जी ने सिर्फ न खाने और न खाने देने की बात कही थी और वाकई न सिर्फ वह खुद नहीं खा रहे हैं, बहुतों को दाल-रोटी भी नहीं खाने दे रहे हैं। बांड का कुछ भी हो, गरीबों का कुछ भी हो, मोदी जी को खाते किसी ने नहीं देखा है और पब्लिक को तो वह दाल-रोटी भी नहीं खाने देेंगे।
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)