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Post: बिहार की प्राचीन लोक कला सिक्की लुप्त होने के कगार पर

बिहार की प्राचीन लोक कला सिक्की लुप्त होने के कगार पर

जिला ब्यूरो नसीम खान “क्या” की रिपोर्ट :

बिहार की प्राचीन लोक कलाओं में से एक सिक्की कला लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है

न्यूज़ डेस्क, बगहा पुलिस जिला 

नसीम खान “क्या”

– अमिट लेख

बगहा, (ए.एल.न्यूज़)। बिहार की प्राचीन लोक कलाओं में से एक सिक्की कला लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है लेकिन बिहार के बगहा की आदिवासी महिलाओं के प्रयास से यह कला अब अपनी पुरानी रौनक में लौट रही है।

फोटो : नसीम खान “क्या”

सिक्की कला के जरिए आदिवासी इलाके की महिलाएं ना सिर्फ अपने सांस्कृतिक विरासत को बचा रही हैं बल्कि इस हुनर का उपयोग कर आर्थिक रूप से एक हद तक आत्मनिर्भर भी बन रही हैं। दरअसल बिहार की बाढ़ वाली नदियों के किनारे उगने वाले एक विशेष प्रकार की घास का उपयोग कर महिलाएं रंग बिरंगी मौनी, डलिया, पंखा, पौती, पेटारी, सिकौती, सिंहोरा इत्यादि चीजें बनाती हैं जिसकी डिमांड विदेशों तक है। बतादें की सिक्की कला का इतिहास काफी पुराना है।

तकरीबन 400 वर्ष पहले से ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं इस कला में निपुण रही हैं। पुराणों में भी इस बात का जिक्र है की राजा जनक ने अपनी पुत्री वैदेही को विदाई के समय सिक्की कला की सिंहौरा, डलिया और दौरी इत्यादि बनाकर दिया था। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बेटी की विदाई के दौरान सिक्की से बने उत्पादों को देने की परंपरा चली आ रही है। इस लुप्त होती सिक्की कला के जरिए सैकड़ों आदिवासी महिलाएं अपना तकदीर लिख रही हैं। वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के भ्रमण पर आने वाले पर्यटकों को सिक्की कला के उत्पाद खूब भाते हैं। ऐसे में यदि सरकार इस सिक्की कला को बढ़ावा देने का प्रयास करे तो ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं कुटीर उद्योग को बड़े पैमाने स्थापित कर रोजगार का सृजन किया जा सकता है।

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